रहस्य-रोमांच >> पौ बारह पौ बारहअनिल मोहन
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
काली रात, काली सड़क, चारों तरफ छाया हुआ गहरा अंधेरा ! सड़क दूर तक सुनसान नजर आ रही थी। रात के तीन बज रहे थे। ऐसे में किसी भले आदमी का नजर आना कठिन ही था।
जगमोहन बहुत ही तेज गति से खाली सड़क पर कार ड्राइव कर रहा था। कार की तीव्र हैडलाइट में, सड़क में जैसे जान पड़ गई हो और वह गहरी नींद से जाग गई हो, वह कुछ इसी तरह चमक रही थी।
हैडलाइट की रोशनी की चमक में, कहीं-कहीं सड़क के किनारे फुटपाथ पर नींद में डूबे लोग नजर आ जाते थे।
जगमोहन इस समय पूना से जरूरी काम निबटाकर, वापस मुम्बई आया था। वैसे तो पूना में एक दिन का काम था, लेकिन दो दिन लग गए थे। उसने शाम को ही देवराज चौहान को फोन करके बता दिया था कि काम हो गया है और रात को किसी भी वक्त वह मुम्बई पहुंच जाएगा।
बेहद तेज रफ्तार से एक मोड़ काटते ही, उसके पैर ब्रेक के पैडल पर दबते चले गए। टायरों के सड़क पर रगड़ खाने की आवाज रात के सुनसान वातावरण में गूंजती चली गई।
अगले ही पल तीव्र अटके के साथ कार रुकी और कार की हैडलाइट में, जो नजारा उसे देखने को मिल रहा था, उससे उसके होंठ सिकुड़ गए। माथे पर बल पड़ गए।
चार खतरनाक दादा टाइप व्यक्ति, एक शरीफ से नजर आने वाले आदमी को बुरी तरह मार रहे थे। उनके ठुकाई करने का अंदाज कुछ ऐसा था मानो वे उसे जान से मार देना चाहते हों, या फिर कम-से-कम उसकी बांहों और घुटनों की हड्डियां तोड़कर-उसे बिल्कुल ही नाकारा बना देना चाहते थे।
एक तरफ सड़क के किनारे कार खड़ी थी।
कई पलों तक जगमोहन ठुकाई का तमाशा देखता रहा। पहले तो उसने उनकी बगल से निकल जाना चाहा, यह सोचकर कि ऐसे लफड़े दिन में पचासों बार मुम्बई की सड़कों पर देखने को मिलते हैं - सब चलता है, परंतु उस शरीफ आदमी की चीखों ने उसका इरादा बदल दिया।
उसकी कार पास में रुकने पर भी उन दादाओं की, ठुकाई करने की गति में कोई फर्क नहीं पड़ा था तथा देखते ही देखते एक ने जेब से चाकू निकाला और उसका फल खोल दिया। कार की हैडलाइट में चाकू का फल चांदी की तरह चमक उठा।
जगमोहन की आंखों में सख्ती उभरी। अब किसी भी समय उस भले आदमी की जान जा सकती थी। जगमोहन ने कार का दरवाजा खोला और बाहर निकलते हुए रिवॉल्वर हाथ में ली और फिर तेजी से चंद कदम उठाकर उनके करीब जा पहुंचा।
अब उसकी रिवॉल्वर का रुख उनकी तरफ था।
चाकूवाला उस पर चाकू का वार करने ही जा रहा था।
उस भले आदमी के गले से आतंक और दहशत-भरी चीखें निकल रहीं थीं।
‘‘रुक जाओं !’’ जगमोहन ऊंचे और कठोर स्वर में गुर्राया।
चाकू वाला अभी वार कर भी न पाया था कि उसका हाथ उठा का उठा रह गया।’’
सबकी निगाहें जगमोहन की तरफ घूमीं।
जिसकी ठुकाई हो रही थी, वह बुरे हाल नीचे पड़ा था और पीड़ा से कराह रहा था। उसके जिस्म के कई हिस्से कट-फट चुके थे, जिनमें से खून और दर्द की लहरें निकल रही थीं।
‘‘छोड़ दो इसे।’’ जगमोहन हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर, हिलाकर गुर्राया।
पल-भर के लिए वहां मौत का सन्नाटा छा गया।
अगले ही क्षण, जो उन चारों का हैड लग रहा था, वह एक कदम आगे आया।
‘‘क्यों-क्यों छोड़ दें ?’’ वह खतरनाक स्वर में बोला।
‘‘इसलिए कि मैं कह रहा हूं।’’ जगमोहन के दांत सख्ती के साथ भिंचे हुए थे।
उसके होंठों से दरिंदगी से भरी हंसी निकली।
‘‘यह तेरा भाई लगता है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘या फिर तेरा साला होगा ?’’
‘‘वह भी नहीं।’’
‘‘पडोसी होगा ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘फिर तो रिश्तेदार होगा। पास का नहीं तो दूर का ही होगा, लेकिन होगा ! ठीक ?’’ यह क्रूरता से बोला।
जगमोहन बहुत ही तेज गति से खाली सड़क पर कार ड्राइव कर रहा था। कार की तीव्र हैडलाइट में, सड़क में जैसे जान पड़ गई हो और वह गहरी नींद से जाग गई हो, वह कुछ इसी तरह चमक रही थी।
हैडलाइट की रोशनी की चमक में, कहीं-कहीं सड़क के किनारे फुटपाथ पर नींद में डूबे लोग नजर आ जाते थे।
जगमोहन इस समय पूना से जरूरी काम निबटाकर, वापस मुम्बई आया था। वैसे तो पूना में एक दिन का काम था, लेकिन दो दिन लग गए थे। उसने शाम को ही देवराज चौहान को फोन करके बता दिया था कि काम हो गया है और रात को किसी भी वक्त वह मुम्बई पहुंच जाएगा।
बेहद तेज रफ्तार से एक मोड़ काटते ही, उसके पैर ब्रेक के पैडल पर दबते चले गए। टायरों के सड़क पर रगड़ खाने की आवाज रात के सुनसान वातावरण में गूंजती चली गई।
अगले ही पल तीव्र अटके के साथ कार रुकी और कार की हैडलाइट में, जो नजारा उसे देखने को मिल रहा था, उससे उसके होंठ सिकुड़ गए। माथे पर बल पड़ गए।
चार खतरनाक दादा टाइप व्यक्ति, एक शरीफ से नजर आने वाले आदमी को बुरी तरह मार रहे थे। उनके ठुकाई करने का अंदाज कुछ ऐसा था मानो वे उसे जान से मार देना चाहते हों, या फिर कम-से-कम उसकी बांहों और घुटनों की हड्डियां तोड़कर-उसे बिल्कुल ही नाकारा बना देना चाहते थे।
एक तरफ सड़क के किनारे कार खड़ी थी।
कई पलों तक जगमोहन ठुकाई का तमाशा देखता रहा। पहले तो उसने उनकी बगल से निकल जाना चाहा, यह सोचकर कि ऐसे लफड़े दिन में पचासों बार मुम्बई की सड़कों पर देखने को मिलते हैं - सब चलता है, परंतु उस शरीफ आदमी की चीखों ने उसका इरादा बदल दिया।
उसकी कार पास में रुकने पर भी उन दादाओं की, ठुकाई करने की गति में कोई फर्क नहीं पड़ा था तथा देखते ही देखते एक ने जेब से चाकू निकाला और उसका फल खोल दिया। कार की हैडलाइट में चाकू का फल चांदी की तरह चमक उठा।
जगमोहन की आंखों में सख्ती उभरी। अब किसी भी समय उस भले आदमी की जान जा सकती थी। जगमोहन ने कार का दरवाजा खोला और बाहर निकलते हुए रिवॉल्वर हाथ में ली और फिर तेजी से चंद कदम उठाकर उनके करीब जा पहुंचा।
अब उसकी रिवॉल्वर का रुख उनकी तरफ था।
चाकूवाला उस पर चाकू का वार करने ही जा रहा था।
उस भले आदमी के गले से आतंक और दहशत-भरी चीखें निकल रहीं थीं।
‘‘रुक जाओं !’’ जगमोहन ऊंचे और कठोर स्वर में गुर्राया।
चाकू वाला अभी वार कर भी न पाया था कि उसका हाथ उठा का उठा रह गया।’’
सबकी निगाहें जगमोहन की तरफ घूमीं।
जिसकी ठुकाई हो रही थी, वह बुरे हाल नीचे पड़ा था और पीड़ा से कराह रहा था। उसके जिस्म के कई हिस्से कट-फट चुके थे, जिनमें से खून और दर्द की लहरें निकल रही थीं।
‘‘छोड़ दो इसे।’’ जगमोहन हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर, हिलाकर गुर्राया।
पल-भर के लिए वहां मौत का सन्नाटा छा गया।
अगले ही क्षण, जो उन चारों का हैड लग रहा था, वह एक कदम आगे आया।
‘‘क्यों-क्यों छोड़ दें ?’’ वह खतरनाक स्वर में बोला।
‘‘इसलिए कि मैं कह रहा हूं।’’ जगमोहन के दांत सख्ती के साथ भिंचे हुए थे।
उसके होंठों से दरिंदगी से भरी हंसी निकली।
‘‘यह तेरा भाई लगता है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘या फिर तेरा साला होगा ?’’
‘‘वह भी नहीं।’’
‘‘पडोसी होगा ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘फिर तो रिश्तेदार होगा। पास का नहीं तो दूर का ही होगा, लेकिन होगा ! ठीक ?’’ यह क्रूरता से बोला।
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